पटरी से उतरी जिंदगी की गाड़ी ने उन्हें हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया। अब राह तकते-तकते उनके अपनों की आँखें पथरा जाएं लेकिन इंतजार खत्म होने वाला नहीं है। वो हमेशा-हमेशा के लिए उनसे जुदा हो गए हैं। परिवार के लिए उनकी आशा और सरकार के प्रति निराशा भी खत्म हो गई है। लेकिन सवाल सुलगते रहेंगे, हमसे-आपसे पूंछते रहेंगे, फुस-फुसाते रहेंगे कि आखिर किसकी बेशर्मी थी इन मौतों के पीछे। भले ही व्यवस्था के आगे आपकी जुबान न हिले, गर्दन भी तटस्थ हो जाए लेकिन आँखें औऱ दिल गवाही दे देगा, बता देगा कि वो भूखे थे, बेबस और लाचार भी। लॉकडाउन ने उनकी किस्मत को लॉक कर दिया था। इंतजार ही एक मात्र रास्ता था लेकिन कब तक। घर तक पहुँचने के लिए सरकार से आशा लगाए बैठे रहे औऱ उम्मीद की डोर टूट गई। पेट की आग से बढ़कर थी परिवार की चिंता थी जो खाये जा रही थी। कोशिश थी कि जैसे भी हो अपनों तक पहुँच जाएं, ऐसे में धैर्य जबाव दिया तो टांगो को भरोसे का साथी बना लिया। निकल पड़े, फौलाद सा इरादा लेकर पहाड़ सी मंजिल की ओर। साथ में कुछ सूखी रोटी और पुलिस का डर। पकड़े न जाएं, शायद इसीलिए रेल की पटरी को सफर का हमसफर बना लिया, लेकिन टांगें अब जबाव दे चुकी थीं, कह रही थीं रुक जाओ कुछ पल के लिए लेकिन हिम्मत हौसला दे रही थी। 36 किलोमीटर पैदल चलने के बाद जब हिम्मत ने भी साथ छोड़ा तो रेल की पटरी को तकिया और पत्थरों को बिछौना बना लिया। सोचा था भोर होगी तो फिर मंजिल की ओर निकलेंगे, लेकिन नींद के झोंके ने जिंदगी को मौत की नींद सुला दिया। एक के बाद एक को वो गाड़ी रौंदते हुए निकल गई, जिसका इंतजार तो वो पिछले डेढ़ महीने से कर रहे थे। सुबह जब परिवार वालों को खबर हुई तो उनकी आंखों से निकल रहे आंसू सिर्फ इस सवाल का जवाब मांग रहे थे कि आखिर इन मौतों के पीछे जिम्मेदार कौन है। भले ही अब इन लोगों के आंसू पोछने की राजनीति को नीति में बदलने का ड्रामा हो पर जाने वाले अब कभी नहीं लौटेंगे। एक माँ का बेटा, बहन का भाई, पत्नी का सिंदूर और बच्चों के सिर से बाप का साया अब कभी अपनी मौजूदगी का अहसास नहीं कराएगा। मैं तो सिर्फ इतना कहूंगा….शर्म करो सरकार, शर्म करो।।।
कंचन वर्मा ( रुख़सत ) की कलम से